News By- हिमांशु उपाध्याय/ नितिन केसरवानी
कौशांबी। सैनी लोहदा कांड केवल एक कानून व्यवस्था का मसला नहीं रहा, यह एक सामाजिक और प्रशासनिक संवादहीनता का प्रतीक बन गया है। यह घटना यह सवाल उठाती है कि अगर पुलिस और आम जनता के बीच विश्वासऔर संवेदनशीलता होती, तो शायद न तो किसी पिता को अपनी जान गंवानी पड़ती, न ही सैकड़ों लोगों को लाठीचार्ज बर्बरता पूर्वक झेलनी पड़ती।
*एक चूक, एक मौत*
इस पूरे प्रकरण की नींव उस वक्त पड़ी जब पॉक्सो एक्ट के तहत रामबाबू तिवारी के बेटे को बिना गहराई से जांच किए ही जेल भेज दिया गया। पुलिस की इस हड़बड़ी और संवेदनहीन कार्रवाई ने एक सीधे-साधे ग्रामीण को
आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। ज़हर खाकर जान देने वाले रामबाबू की मौत अब एक सवाल बनकर पुलिस प्रशासन के सामने खड़ी है – क्या सिर्फ कार्रवाई ही कर्तव्य है, या इंसानियत भी जरूरी है?
*बातचीत की जगह बर्बरता से लाठी चार्ज करना*
रामबाबू की मौत के बाद गुस्से में आए ग्रामीणों ने लोहदा चौराहे पर जाम लगाया।अगर पुलिस का जनता से रिश्ता भरोसे और सम्मान पर आधारित होता, तो हालात काबू में रखे जा सकते थे। लेकिन अफसोस की बात यह रही कि संवाद की जगह बल प्रयोग किया गया। लाठीचार्ज कर बर्बरता से जबरन सड़क खाली कराना पुलिस की कमजोरी को छुपाने का प्रयास ज्यादा लगा, न कि समाधान का तरीका।
*क्या बदलना चाहिए?*
*प्राथमिकता हो संवाद*
जमीनी स्तर पर पुलिस को चाहिए कि वह हर संवेदनशील मामले में त्वरित कार्रवाई से पहले सत्यापन और संवाद को प्राथमिकता दे।
*पुलिस जनसंपर्क अभियान*
थाना स्तर पर आम जनता से सीधे संवाद के कार्यक्रम नियमित हों, जिससे भरोसा बने और गलतफहमियां न पनपें।
*संवेदनशीलता का प्रशिक्षण* पुलिसकर्मियों को केवल कानून नहीं, मानवीय दृष्टिकोण से सोचने की भी ट्रेनिंग मिले।
*निष्कर्ष*
लोहदा की घटना एक चेतावनी है – सिर्फ वर्दी पहन लेना जिम्मेदारी नहीं होती, उसे निभाना भी जरूरी होता है। एक बेहतर पुलिस-जन संबंध न केवल प्रशासन को मजबूत बनाता है, बल्कि समाज में विश्वास का वातावरण भी तैयार करता है। यह वक्त है कि सैनी पुलिस introspection करे और खुद से पूछे – क्या हम जनता की आवाज़ सुन पा रहे हैं, या सिर्फ आदेश का पालन कर रहे हैं?
इस बार सिर्फ कार्रवाई नहीं, आत्ममंथन भी जरूरी है। तभी ‘लोहदा’ दोबारा नहीं दोहराया जाएगा।