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जारवाही में किराने की आड़ में रेत माफिया सक्रिय – प्रशासनिक चुप्पी बनी सहयोगी?

विवेक-प्रकाश की जोड़ी ने जमा लिया अड्डा, '55' का नाम बन गया भ्रष्टाचार का प्रतीक

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जारवाही में किराने की आड़ में रेत माफिया सक्रिय – प्रशासनिक चुप्पी बनी सहयोगी?

 

विवेक-प्रकाश की जोड़ी ने जमा लिया अड्डा, ’55’ का नाम बन गया भ्रष्टाचार का प्रतीक

 

ज्ञानेंद्र पांडेय

शहडोल/बुढ़ार।

बुढ़ार थाना अंतर्गत जारवाही में रेत माफियाओं का गोरखधंधा दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। किराने की दुकान की आड़ में अब रेत चोरी का ऐसा जाल बिछ चुका है जिसमें प्रशासनिक चुप्पी और मिलीभगत की बू साफ़ आने लगी है।

इस अवैध साम्राज्य के केंद्र में हैं विवेक और प्रकाश, जिनकी जुगल जोड़ी अब इस क्षेत्र में रेत के ‘किंगपिन’ बन चुकी है।

 

शाम ढलते ही शुरू होता है रेत का अवैध कारवां

 

दिन के उजाले में सब शांत, लेकिन रात होते ही जारवाही की धरती पर अवैध रेत खनन का महायज्ञ शुरू हो जाता है। हैरत की बात ये है कि यह पूरा तंत्र प्रशासन की नाक के नीचे चल रहा है, लेकिन पुलिस, खनिज और वन विभाग की संवेदनशीलता सिर्फ बयानबाज़ी तक सीमित है।

 

प्रशासन की चुप्पी सवालों के घेरे में

 

क्या यह चुप्पी डर की है, दबाव की है या दाम की है?

हर बार की तरह इस बार भी अधिकारी “जांच कराएंगे”, “सूचना नहीं थी”, “टीम भेज रहे हैं” जैसे जुमलों से खुद को पाक-साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन ज़मीनी सच्चाई ये है कि जबतक चुप्पी नहीं टूटेगी, तबतक माफिया बेलगाम ही रहेंगे।

 

 

‘55’ की गूंज – क्या यही है रेत चोरी का कोडवर्ड?

सूत्रों के अनुसार, इन दिनों जारवाही और आसपास के रेत माफिया ‘55’ का नाम गुनगुनाते नज़र आ रहे हैं।

 

आख़िर ये ‘55’ है क्या?

 

कोई रेट फिक्स है, कोई अधिकारी का कोड या फिर कोई ‘हिस्सेदारी’?

 

 

रेत माफिया खुलेआम कहते पाए जा रहे हैं – “55 सब सेट है!”

इस वाक्य ने न केवल आम लोगों को, बल्कि कुछ ईमानदार अधिकारियों को भी कटघरे में ला खड़ा किया है।

कहीं यह ’55’ संरक्षण शुल्क तो नहीं, जिसकी बदौलत रात में वाहन बिना रोकटोक रेत लेकर निकल जाते हैं?

 

 

हरियाली की आड़ में ईमानदारी की लूट

 

प्रशासन हरियाली की बातें कर रहा है, योजनाएं बना रहा है, लेकिन वहीं दूसरी ओर इसी हरियाली के नाम पर जमीन की नीली मिट्टी तक नोच ली जा रही है।

कुछ चौकीदारों की नज़र हरियाली पर नहीं, हवाला पर है।

सवाल उठता है:

ईमानदारी पर ये धब्बे कब तक छिपाए जाएंगे?

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