“क्या भाजपा में अब निष्ठा नहीं, नेटवर्क और नोटों का बोलबाला है?”
दहिया परिवार की दशकों की निष्ठा को क्यों नहीं मिला सम्मान? उठते हैं गंभीर सवाल
ज्ञानेंद्र पांडेय
अनूपपुर
“पार्टी से बड़ा कुछ नहीं” – ये वाक्य नारे के तौर पर भले ही सुना जाता हो, लेकिन दहिया परिवार ने इसे अपने जीवन का धर्म बना लिया था। अमलाई क्षेत्र के इस परिवार ने जब कांग्रेस पूरे क्षेत्र पर हावी थी, तब भी बिना डरे और बिना किसी लालच के भाजपा का झंडा थामा और घर-घर पार्टी की विचारधारा पहुंचाई। आज उसी परिवार के कर्मठ, समर्पित कार्यकर्ता अजय दहिया सवाल कर रहे हैं – क्या भाजपा में अब निष्ठा की नहीं, सिर्फ नेटवर्क और नोटों की कीमत है?
परिवार की पीढ़ियों ने उठाया बीजेपी का झंडा, लेकिन पद आज भी सपना?
अजय दहिया का परिवार तब से भाजपा से जुड़ा हुआ है जब इस क्षेत्र में पार्टी के कार्यकर्ता उंगलियों पर गिने जाते थे। उनके पूर्वजों ने भी संघ और जनसंघ के दौर में विचारधारा का बीज बोया था। गांव-कस्बों में जनजागरण से लेकर झंडा यात्रा तक, हर संघर्ष में दहिया परिवार सबसे आगे रहा।
ना कभी पद मांगा
ना विरोध किया
ना ही कभी गुटबाजी में शामिल हुए
फिर भी इतने वर्षों बाद भी अजय दहिया जैसे कार्यकर्ता को न तो मंडल स्तर पर कोई पद मिला, न जिले में कोई जिम्मेदारी। आखिर क्यों?
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भाजपा की “कर्म-भूमि” अब बनती जा रही है “कुर्सी-भूमि”?
आज जब भाजपा पूरे देश में सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, तो ऐसा क्यों लग रहा है कि जमीनी कार्यकर्ताओं को दरकिनार किया जा रहा है? अजय दहिया जैसे कार्यकर्ता, जिन्होंने पार्टी के लिए तन-मन-धन समर्पित किया, आज भी केवल दर्शक बने हैं। जबकि कुछ तथाकथित “पैराशूट नेता”, जिनका न पार्टी से भावनात्मक जुड़ाव है और न ही वैचारिक निष्ठा – सिर्फ पैसे, पहचान और सिफारिश के दम पर बड़े-बड़े पद हथिया रहे हैं।
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कुर्सी की दौड़ में नैतिकता पीछे, दलाली आगे?
मंडल अध्यक्षी की दौड़ में जिस तरह के चेहरों के नाम सामने आ रहे हैं, उनमें से कई पर गंभीर आरोप हैं –
ज़मीन कब्जा
अवैध निर्माण
गरीबों की झोपड़ियों पर बुलडोज़र
पार्टी के नाम पर वसूली
यह तस्वीर न केवल पार्टी की साख पर सवाल खड़ा करती है, बल्कि भाजपा की सांस्कृतिक और सामाजिक वैचारिकता पर भी चोट करती है। यदि ऐसे चेहरों को तवज्जो दी जाएगी तो सच्चे और मूल कार्यकर्ता आखिर कहां जाएंगे?
कहां गया “पार्टी कार्यकर्ता प्रथम” का सिद्धांत?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री मोहन यादव कार्यकर्ताओं को पार्टी की रीढ़ कहते हैं। लेकिन स्थानीय स्तर पर अगर गठबंधन, गुटबाजी और चेहरों की “मुंहदेखी” पर संगठन खड़ा होगा तो कार्यकर्ता का मनोबल टूटना स्वाभाविक है।
अजय दहिया, जो आज भी बिना किसी लालसा के पार्टी के लिए सक्रिय हैं, कहते हैं:
हमने कभी पद के लिए काम नहीं किया, लेकिन अब लगता है कि बिना किसी आशीर्वाद या अंदरूनी संपर्क के पार्टी में पद मिलना असंभव है
अंत में सवाल बड़ा है – क्या अब भाजपा में बिना “पैसे और पहुंच” के पदोन्नति संभव है?
आज वक्त है पार्टी के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों को यह सोचने का कि अगर अजय दहिया जैसे कार्यकर्ताओं को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा, तो वे युवा जो आज भाजपा में भरोसा कर जुड़े हैं, उनका भरोसा कितना टिकेगा?
एक समर्पित परिवार की यह गाथा भाजपा के लिए चेतावनी है – अगर मूल कार्यकर्ता को सम्मान नहीं मिला, तो विचारधारा और संगठन दोनों को खोखला होने से कोई नहीं रोक सकता।